Monday 23 May 2022

*बछेंद्री पाल - पहाड़ों की रानी'*

*बछेंद्री पाल - पहाड़ों की रानी'*

आज के दिन ही विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर चढ़ी थीं 'पहाड़ों की रानी' बछेंद्री पाल। वे पर्वत शिखर एवरेस्ट की ऊंचाई को छूने वाली भारत की पहली और दुनिया की 5वीं महिला पर्वतारोही हैं। उन्होंने यह कारनामा आज ही के दिन 23 मई 1984 को दिन के 1 बजकर सात मिनट पर अपने जन्मदिन से एक दिन पहले किया था।

 बछेंद्री पाल ने उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी की पहाड़ों की गोद में 24 मई सन् 1954 को जन्म लिया। भारत के उत्तराखंड राज्य के एक खेतिहर परिवार में जन्मी बछेंद्री ने बी.एड. किया। स्कूल में शिक्षिका बनने के बजाय पेशेवर पर्वतारोही का पेशा अपनाने पर बछेंद्री को परिवार और रिश्तेदारों का विरोध झेलना पड़ा।

भारतीय अभियान दल के सदस्य के रूप में माउंट एवरेस्ट पर आरोहण के कुछ ही समय बाद उन्होंने इस शिखर पर महिलाओं की एक टीम के अभियान का सफल नेतृत्व किया। 

1994 में बछेंद्री ने महिलाओं के, गंगा नदी में हरिद्वार से कलकत्ता तक 2,500 किमी लंबे नौका अभियान का नेतृत्व किया। हिमालय के गलियारे में भूटान, नेपाल, लेह और सियाचिन ग्लेशियर से होते हुए कराकोरम पर्वत श्रृंखला पर समाप्त होने वाला 4,000 किमी लंबा अभियान उनके द्वारा इस दुर्गम क्षेत्र में प्रथम महिला अभियान का प्रयास था।

बछेंद्री पाल भारत की एक 'इस्पात कंपनी टाटा स्टील' में कार्यरत हैं, जहां वह चुने हुए लोगो को रोमांचक अभियानों का प्रशिक्षण देती हैं।
मेधावी और प्रतिभाशाली होने के बावजूद उन्हें कोई अच्छा रोज़गार नहीं मिला। जो मिला वह अस्थायी, जूनियर स्तर का था और वेतन भी बहुत कम था। इस से बछेंद्री को निराशा हुई और उन्होंने नौकरी करने के बजाय 'नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग' कोर्स के लिये आवेदन कर दिया। यहाँ से बछेंद्री के जीवन को नई राह मिली। 

1982 में एडवांस कैम्प के तौर पर उन्होंने गंगोत्री (6,672 मीटर) और रूदुगैरा (5,819) की चढ़ाई को पूरा किया। इस कैम्प में बछेंद्री को ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह ने बतौर इंस्ट्रक्टर पहली नौकरी दी।

1984 में भारत का चौथा एवरेस्ट अभियान शुरू हुआ। दुनिया में अब तक सिर्फ 4 महिलाऐं एवरेस्ट की चढ़ाई में कामयाब हो पाई थीं। 1984 के इस अभियान में जो टीम बनी, उस में बछेंद्री समेत 7 महिलाओं और 11 पुरुषों को शामिल किया गया था। 1 बजे 29,028 फुट (8,848 मीटर) की ऊंचाई पर 'सागरमाथा (एवरेस्ट)' पर भारत का झंडा लहराया गया। इस के साथ एवरेस्ट पर सफलतापूर्वक क़दम रखने वाले वे दुनिया की 5वीं महिला बनीं। केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।

बछेन्द्री पाल को1986 में कलकत्ता ‘लेडीज स्टडी ग्रुप’ अवॉर्ड दिया गया।
आई.एम.एफ. द्वारा पर्वतारोहण में सर्वश्रेष्ठ होने का स्वर्ण पदक दिया गया।
1986 में उन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ दिया गया।
1994 में बछेन्द्री पाल को ‘नेशनल एडवेंचर अवॉर्ड’ दिया गया।
उन्हें 1995 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘यश भारती’ पुरस्कार प्रदान किया गया।
1997 में ‘लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड’ में उनका नाम दर्ज किया गया।
1997 में गढ़वाल युनिवर्सिटी द्वारा उन्हें आनरेरी डी. लिट. की डिग्री प्रदान की गई।
1997 में बछेन्द्री पाल को ‘महिला शिरोमणि अवॉर्ड’ दिया गया ।
वह आई.एम.एफ., एच.एम.आई., एडवेंचर फाउंडेशन जैसी संस्थाओं की कार्यसमिति की सदस्या हैं।
वह सेवन सिस्टर्स एडवेंचर क्लब, उत्तरकाशी तथा आल इंडिया वीमेन्स जूडो-कराटे फेडरेशन की वाइस चेयरमेन हैं।
वह ‘लायन्स क्लब ऑफ इंडिया’ की प्रेसिडेंट हैं।
वह विश्व के अनेक देशों में पर्वतारोहण सबंधी विषय पर भाषण देती रहती हैं।
बछेन्द्री पाल ने एक पुस्तक भी लिखी है, जिसका नाम है ‘एवरेस्ट-माई जर्नी टू द टॉप’।

Saturday 21 May 2022

शरद जोशी

*आज जिनका जन्मदिन है-शरद जोशी*

शरद जोशी का जन्म 21 मई 1931 को उज्जैन में हुआ था। वे अपने समय के अनूठे व्यंग्य रचनाकार थे। अपने वक्त की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों को उन्होंने अत्यंत पैनी निगाह से देखा। अपनी पैनी कलम से बड़ी साफगोई के साथ उन्हें सटीक शब्दों में व्यक्त किया। उन्होंने बचपन से ही कविताएं नाटक उपन्यास आदि का लिखना प्रारंभ कर दिया था। 

शरद जोशी पहले व्यंग्य नहीं लिखते थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपनी आलोचना से खिन्न होकर व्यंग्य लिखना शुरू कर दिया। वह भारत के पहले व्यंग्यकार थे, जिन्होंने पहली बार मुंबई में ‘चकल्लस’ के मंच पर 1968 में गद्य पढ़ा और किसी कवि से अधिक लोकप्रिय हुए।

 क्षितिज, छोटी सी बात, साँच को आँच नहीं, गोधूलि और उत्सव फ़िल्में लिखने वाले शरद जोशी ने 25 साल तक कविता के मंच से गद्य पाठ किया। शरद जोशी जी ने आकाशवाणी में स्क्रिप्ट राइटर के रूप में भी कार्य किया उसके बाद इन्होंने मध्य प्रदेश के सूचना विभाग में भी कार्य किया लेकिन उनकी रूचि साहित्य में थी इसलिए उन्होंने सूचना विभाग में सरकारी नौकरी छोड़कर साहित्य रचना में अपने जीवन को लगा दिया और साहित्य रचना करने लगे थे।

बिहारी के दोहे की तरह शरद अपने व्यंग्य का विस्तार पाठक पर छोड़ देते हैं। एक बार शरद जोशी ने लिखा था, ‘'लिखना मेरे लिए जीवन जीने की तरक़ीब है। इतना लिख लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ यही कह पाता हूँ कि चलो, इतने बरस जी लिया। यह न होता तो इसका क्या विकल्प होता, अब सोचना कठिन है। लेखन मेरा निजी उद्देश्य है।'

शरद जोशी के व्यंग्य में हास्य, कड़वाहट, मनोविनोद और चुटीलापन दिखाई देता है, जो उन्हें जनप्रिय और लोकप्रिय रचनाकार बनाता है। उन्होंने टेलीविज़न के लिए ‘ये जो है ज़िंदगी’, 'विक्रम बेताल', 'सिंहासन बत्तीसी', 'वाह जनाब', 'देवी जी', 'प्याले में तूफान', 'दाने अनार के' और 'ये दुनिया गजब की' आदि धारावाहिक लिखे। 'सब' चैनल पर उनकी कहानियों और व्यंग्य पर आधारित धारावाहिक 'लापतागंज शरद जोशी की कहानियों का पता' भी दर्शकों की पसंद में शामिल रहा है।

उनके व्यंग्य संग्रह-परिक्रमा, किसी बहाने, तिलिस्म, रहा किनारे बैठ, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, दूसरी सतह, हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे, यथासम्भव, जीप पर सवार इल्लियाँ।
नाटक-अंधों का हाथी, एक गधा उर्फ अलादाद ख़ाँ
फ़िल्म लेखन- क्षितिज, छोटी सी बात, सांच को आंच नही, गोधूलि, उत्सव
उन्हें मिले सम्मान व पुरस्कार-चकल्लस पुरस्कार, काका हाथरसी पुरस्कार, श्री महाभारत हिन्दी सहित्य समिति इन्दौर द्वारा ‘सारस्वत मार्तण्ड’ की उपाधि, परिवार पुरस्कार से सम्मानित, वर्ष 1990 में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित किया गया।
मध्य प्रदेश सरकार उनके नाम पर 'शरद जोशी सम्मान' देती है।

5 सितंबर 1991 में मुंबई में उनका निधन हुआ। 
आज उनके जन्मदिन के अवसर पर उनकी स्मृतियों को नमन

              साभार संकलन
              सोशल मीडिया

Friday 20 May 2022

पीरू सिंह

*आज जिनका जन्मदिन है- पीरू सिंह*



 पीरू सिंह का जन्म 20 मई, 1918 को राजस्थान के झुंझुनू ज़िले के बेरी गाँव में हुआ था। वे भारतीय सेना के वीर अमर शहीदों में एक थे। कश्मीर घाटी के युद्ध में सक्रिय रूप से जूझते हुए उन्होंने पीरकांती और लेडीगनी ठिकानों पर फ़तह हासिल की थी। वर्ष 1948 में दारापारी के युद्ध में पीरू सिंह ने वीरगति प्राप्त की। उनकी वीरता और बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैनिक सम्मान "परमवीर चक्र" से सम्मानित किया गया।

 उनके पिता के तीन पुत्र तथा चार पुत्रियाँ थीं। पीरू सिंह अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। सात वर्ष की आयु में उन्हें स्कूल भेजा गया, लेकिन पीरू सिंह का मन स्कूली शिक्षा में नहीं लगा। स्कूल में एक साथी से उनका झगड़ा हो गया था। तब स्कूल के अध्यापक ने उन्हें डाँट लगाई। पीरू सिंह ने भी अपनी स्लेट वहीं पर पटकी और भाग गये। इसके बाद वे कभी पलट कर स्कूल नहीं गये।

स्कूली शिक्षा में मन नहीं लगने पर पीरू सिंह के पिता ने उन्हें खेती बाड़ी में लगा लिया। वह एक सम्पन्न किसान थे। खेती में पीरू सिंह ने अपनी रुचि दिखाई। वह अपने पिता की भरपूर मदद किया करते थे। उन्होंने किसानी का कार्य अच्छी तरह से सीख लिया था। किसानी के अतिरिक्त कई प्रकार के साहसिक खेलों में भी उनका बहुत मन लगता था। शिकार करने के तो वह बचपन से ही शौकीन रहे थे। अपने इस शौक़ के कारण वह कई बार घायल भी हुए थे।

शिकार के शौक़ ने ही पीरू सिंह को सेना में आने और फौजी बनने के लिए प्रेरित किया था। 1936 को पीरू सिंह ने फौज में कदम रखा। उन्होंने पंजाब में प्रशिक्षण लिया। फिर 1 मई, 1937 को उन्हें सेना की पंजाब इकाई में नियुक्त कर लिया गया। फौज में आने के बाद ही पीरू सिंह के चरित्र में आश्चर्यजनक बदलाव आया। स्कूल में उन्हें पढ़ाई से चिढ़ थी, लेकिन फौज में वह पढ़ाई के लिए बेहद गंभीर सैनिक सिद्ध हुए। कुछ ही वर्षों में उन्होंने 'इंडियन आर्मी फर्स्ट क्लास सर्टिफिकेट ऑफ़ एजुकेशन' सफलतापूर्वक पा लिया।

अपनी शिक्षा के आधार पर 17 अगस्त, 1940 को पीरू सिंह लांस नायक के रूप में पदोन्नत हो गए। इसी दौरान उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा पर युद्ध में भी भाग लिया। मार्च, 1941 में वह नायक बनाये गए। सितम्बर, 1941 को वह शिक्षा के बल पर ही पंजाब रेजिमेंटल सेंटर में इंस्ट्रक्टर बन गए, जहाँ वह अक्टूबर, 1945 तक कार्य करते रहे। फ़रवरी, 1942 में वे हवलदार के रूप में पदोन्नत हुए। फिर मई, 1943 में वह कम्पनी हवलदार मेजर बन गये। उनकी तरक्की का यह रुझान हमेशा यह बताता रहा कि पीरू सिंह एक कर्मठ, बहादुर और जिम्मेदार फौजी थे।

वर्ष 1947-1948 में जम्मू-कश्मीर क्षेत्र, जो लड़ाई का मैदान बन गया था, उसके पीछे ब्रिटिश राज द्वारा 3 जून, 1947 को की गई वह घोषणा थी, जो उन्होंने देश के विभाजन के साथ-साथ की थी। ब्रिटिश राज ने प्रस्ताव किया कि देश के विभाजन के बाद अखण्ड भारत की सभी रियासतें यह चुनने के लिए स्वतंत्र हैं कि वह भारत में रहना चाहती हैं या पाकिस्तान से जुड़ना चाहती हैं या फिर उन्हें स्वतंत्र रहना ही पसन्द है। इनमें से जो रियासतें स्वतंत्र रहना चाहती थीं, उनमें महाराजा हरिसिंह भी थे, जिनका राज्य जम्मू-कश्मीर में था। उन्होंने इसके निर्णय करने की प्रक्रिया में जनमत जुटाना पसन्द किया, जिसके लिए उन्हें कुछ समय चाहिए था।

हरिसिंह ने इसके लिए भारत तथा पाकिस्तान से कुछ समय ठहरने का निवेदन किया। भारत ने उनके इस निवेदन को मान लिया, लेकिन पाकिस्तान तो बस हर हाल में कश्मीर को पाना चाहता था। उसने महाराजा हरिसिंह के निवेदन को नहीं माना। उसने एक रणनीति के तहत कश्मीर की वह आपूर्ति रोक दी, जो उसके क्षेत्र से कश्मीर हमेशा पहुँचती थी। इस आपूर्ति में राशन, तेल, ईधन आदि की बहुत ही आवश्यक सामग्री थीं। इसके बाद पाकिस्तान ने पूरे सैन्य बल के साथ कश्मीर पर हमला कर दिया। उसका इरादा महाराजा हरिसिंह पर दबाव डालने का था कि वह पाकिस्तान के पक्ष में अपना मत प्रकट करें और पाकिस्तान के साथ जुड़ जायें। लेकिन पाकिस्तान को निराशा ही हाथ आई, क्योंकि महाराजा हरिसिंह ने भारत के पक्ष में मत प्रकट किया और भारत से मदद की गुहार की। ऐसी स्थिति में अब भारत के लिए मदद करना आसान था, क्योंकि महाराजा की सहमति से जम्मू-कश्मीर भारत का हो चुका था। 

26 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरिसंह ने भारत के पक्ष में अपना मत रखा और 31 अक्टूबर को भारत इस युद्ध में पाकिस्तान से मुकाबले के लिए आ खड़ा हुआ। यह युद्ध कई मोर्चों पर एक साथ लड़ा गया। उनमें से एक मोर्चा दारापारी का था, जहाँ कम्पनी हवलदार पीरू सिंह नियुक्त थे।

उत्तरी तिथवाल की 'डी' कम्पनी में पीरू सिंह हवलदार मेजर के रूप में नियुक्त थे और इस कम्पनी को जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वह पहाड़ी पर जमी दुश्मन की टुकड़ी पर हमला करके उस पर काबू कर ले। दुश्मन ने बहुत सलीके से मीडियम मशीनगनें लगा कर अपनी रणनीति जमा रखी थी और उसकी ओर से वह सब रास्ते निशाने पर थे, जिनके जरिए उन पर हमला बोला जा सकता था। दुश्मन के बंकरों से ग्रेनेड फेंके जा रहे थे। हवलदार मेजर कम्पनी की एकदम अग्रिम पंक्ति में आगे बढ़ रहे थे। पीरू सिंह ने देखा कि उनकी आधे से ज्यादा टुकड़ी तबाह हो चुकी है, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। पूरे जोश से उन्होंने अपने बचे हुए जवानों का हौसला बढ़ाया और तेज़ी से दुश्मन के निकटतम मीडियम मशीनगन दल की ओर बढ़ गए। फटते हुए ग्रेनेड की किर्चें पीरू सिंह के कपड़ों और शरीर को चीरते हुए निकलती जा रही थीं, लेकिन पीरू सिंह को इसकी जरा भी परवाह नहीं थी वह अपनी हिफाजत की चिन्ता किए बगैर आगे बढ़ रहे थे। उनके शरीर से ख़ून बह रहा था, लेकिन उनका ध्यान इस ओर नहीं था। उनका अपना सारा ध्यान बस लक्ष्य को पाने में था। उन्होंने उत्तेजना से भरकर एक छलांग दुश्मन के उस मीडियम मशीनगन के दस्ते पर लगाई और बैनेट से भेदते हुए उन्हें मौत की नींद सुला दिया।

इसी समय पीरू सिंह को अहसास हुआ कि वह अपनी टुकड़ी में अकेले ही बचे हैं और एक मात्र योद्धा हैं। उनके शेष साथी या तो मौत की नींद सो गए हैं या बुरी तरह घायल हैं। अचानक एक ग्रेनेड आकर सीधे उनके चेहरे पर लगा। उनका चेहरा और आँखें ख़ून से भीग गईं। इसके बावजूद उन्होंने रेंगकर लुढ़कते हुए, ग्रेनेड की परवाह किए बगैर दुश्मन की दूसरी पोजीशन की ओर कूच कर दिया। पीरू सिंह ने पूरे जोश से युद्ध घोष किया और दूसरी खाई में छिपे दुश्मनों पर भी संगीन से वार किया और दो सैनिकों को ठिकाने लगा दिया। उनके इस हमले का सारा नज़ारा उनकी 'सी' कम्पनी के कमाण्डर ने देखा, जो पीरू सिंह की कम्पनी की गोलीबारी में मदद कर रहा था। इसी घायल अवस्था में हवलदार पीरू सिंह दूसरी खाई से निकल कर दुश्मन के तीसरे बंकर की ओर बढ़े। इसी वक्त एक गोली आकर सीधे उनके सिर में लगी और उन्हें दुश्मन की खाई से टकरा कर गिरते देखा गया। यकायक दुश्मन को धमाके की आवाज आई, जिससे पता चला कि पीरू सिंह का ग्रेनेड अपना काम कर गया। ठीक इसी समय पीरू सिंह ने भी गोली को झेलकर प्राण त्याग दिये।

पीरू सिंह ने अपनी बहादुरी भरे कारनामे के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी, लेकिन वह अपने साथियों के आगे एक जिन्दा मिसाल छोड़ गए कि अकेले दम पर भी लड़ी गई लड़ाई हिम्मत के बल पर क्या नतीजा दिखाती है। युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए। जिस हिम्मत, बहादुरी और सूझ-बूझ से हवलदार मेजर पीरू सिंह ने मोर्चा संभाला, उसके लिए उन्हें मरणोपरान्त "परमवीर चक्र" से सम्मानित किया गया।

आज उनके जन्मदिन पर भारत माँ के इस लाड़ली सपूत को मेरा नमन

         *संकलन*
     साभार सोशल मीडिया

Thursday 19 May 2022

*आज जिनका जन्मदिन है... नाना साहब*

*आज जिनका जन्मदिन है... नाना साहब*
*19/05/2022*


नाना साहब ने 19 मई सन 1824 को वेणुग्राम निवासी माधवनारायण भट्ट के घर जन्म लिया था। वे सन 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार थे। उनका मूल नाम 'धोंडूपंत' था। स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोहियों का नेतृत्व किया। पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट द्वितीय ने नाना साहब को गोद ले लिया था। इतिहास में नाना साहेब को बालाजी बाजीराव के नाम से भी संबोधित किया गया है। 1 जुलाई 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रांतिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया।

 इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय जिस समय दक्षिण छोड़कर गंगा तटस्थ बिठूर, कानपुर में रहने लगे थे, तब उनके साथ दक्षिण के पं। माधवनारायण भट्ट और उनकी पत्नी गंगाबाई भी वहीं रहने लगे थे। इसी भट्ट दम्पत्ति से एक ऐसे बालक का जन्म हुआ, जो भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में अपने अनुपम देशप्रेम के कारण सदैव अमर हो गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने पुत्रहीन होने के कारण इसी बालक को गोद ले लिया था। कानपुर के पास गंगा तट के किनारे बिठुर (कानपुर) में ही रहते हुए, बाल्यावस्था में ही नाना साहब ने घुड़सवारी, मल्लयुद्ध और तलवार चलाने में कुशलता प्राप्त कर ली थी। अजीम उल्ला ख़ाँ नाना साहब का वेतन भोगी कर्मचारी था।

पेशवा बाजीराब को मराठा साम्राज्य छोड़कर कानपूर के पास बिठूर आना पड़ा था। इस समय तक अंग्रेजों ने भारत के एक बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इसी दौरान 28 जनवरी 1851 ई। को पेशवा बाजीराव की मौत हो गई। कहा जाता है कि मृत्यु तक पेशवा को 80 हजार डॉलर की पेंशन अंग्रेज़ सरकार से मिलती थी, लेकिन बाद में उसे रोक दिया गया। माना जाता है कि लॉर्ड डलहौजी ने नाना साहेब को दत्तक पुत्र होने के कारण पेंशन देने से मना कर दिया। ऐसे में नाना साहेब को इस बात से बहुत दु:ख हुआ। एक तो वैसे ही उनके मराठा साम्राज्य पर अंग्रेज अपनी हुकूमत जमा कर बैठे थे, वहीं दूसरी ओर उन्हें जीवन यापन के लिए रॉयल्टी का कुछ भी हिस्सा नहीं दिया जा रहा था।

इसके बाद 1853 ई। में नाना साहेब ने अपने सचिव अजीम उल्ला ख़ाँ को पेंशन बहाली पर बात करने के लिए लंदन भेजा। अजीम उल्ला ख़ाँ हिंदी, फ़ारसी, उर्दू, फ्रेंच, जर्मन और संस्कृत का अच्छा ज्ञाता था। वह अंग्रेजों की क्रूर नीतियों का शिकार था, इसलिए नाना साहेब ने उसे अपना सचिव बना लिया था। इस दौरान अजीम उल्ला ने अंग्रेज अधिकारियों को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उनकी सभी दलीलें ठुकरा दी गईं। ब्रिटिश अधिकारियों के इस रवैये से नाना साहेब बेहद खफा थे। ऐसे में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत को ही सबसे अच्छा विरोध का माध्यम माना।

उधर, मंगल पांडे के नेतृत्व में मेरठ छावनी के सिपाही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का मन बना चुके थे। खबर उड़ती-उड़ती नाना साहेब के पास पहुंची तो इन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर 1857 में ब्रिटिश राज के खिलाफ कानपुर में बगावत छेड़ दी। जब मई 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वालायें उठीं, नाना साहब भी राष्ट्र मुक्ति संघर्ष में कूद पड़े थे। उन्होंने कानपुर पर अधिकार कर लिया। कई मास इस पर आज़ादी का झण्डा लहराता रहा। कानपुर पर फिर से अधिकार करने के लिए हेवलॉक ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। उन्होंने कुछ समय तक शत्रु सेना से वीरता के साथ संघर्ष किया। अन्त में उनकी पराजय हुई। नाना साहब ने अपना साहस नहीं खोया और उन्होंने कई स्थानों में शत्रु सेना से संघर्ष किया। अन्त में जब 1857 का प्रथम संग्राम असफल हुआ, तब नाना साहब को सपरिवार नेपाल की शरण लेनी पड़ी। लेकिन वहाँ शरण ना मिल सकी, क्योंकि नेपाल दरबार अंग्रेज़ों को असन्तुष्ट नहीं करना चाहता था। जुलाई सन 1857 तक इस महान् देश भक्त को घोर आपत्तियों में अपने दिन व्यतीत करने पड़े। उनका स्वराज्य स्थापना का स्वप्न टूट चुका था।

नाना साहेब और ब्रिटिश सेना के बीच की इस लड़ाई ने सत्ती चोरा घाट के नरसंहार के बाद और भी गंभीर रुख अख्तियार कर लिया। दरअसल, 1857 में एक समय पर नाना साहेब ने ब्रिटिश अधिकारियों के साथ समझौता कर लिया था, मगर जब कानपुर का कमांडिंग ऑफिसर जनरल विहलर अपने साथी सैनिकों व उनके परिवारों समेत नदी के रास्ते कानपुर आ रहे थे, तो नाना साहेब के सैनिकों ने उन पर हमला कर दिया। इस घटना के बाद ब्रिटिश पूरी तरह से नाना साहेब के खिलाफ हो गए और उन्होंने नाना साहेब के गढ़ माने जाने वाले बिठूर पर हमला बोल दिया। हमले के दौरान नाना साहेब जैसे-तैसे अपनी जान बचाने में सफल रहे। लेकिन यहां से भागने के बाद उनके साथ क्या हुआ यह बड़ा सवाल है। इसे लेकर कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वह भागने में सफल हो गए थे और अंग्रेजी सेना से बचने के लिए भारत छोड़कर नेपाल चले गए।

हालांकि रहस्य केवल नाना साहेब के गायब होने का नहीं है। बात उनके बेशकीमती खजाने की भी है। जिस समय अंग्रेजों ने नाना साहेब के महल पर हमला किया, तो उनके हाथ नाना साहेब तो नहीं लगे, लेकिन दौलत के भूखे अंग्रेजों ने उनके महल को कुरेदना शुरू कर दिया।अंग्रेज वहां किसी गुप्त खजाने की तलाश में थे। इसके लिए खासतौर पर रॉयल इंजीनियरों व लगभग आधी ब्रिटिश सेना को काम पर लगा दिया गया। खजाने की खोज के लिए अंग्रेजों ने कुछ भारतीय जासूसों की भी मदद ली। जिसके चलते वह खजाना ढूंढ पाने में लगभग सफल हो ही गए। महल में खोज के दौरान अंग्रेजों को सात गहरे कुंए मिले। जिनमें तलाशने पर उन्हें सोने की प्लेट मिली। इससे यह पक्का हो गया कि नाना साहेब का खजाना इन्हीं कुओं में कहीं छिपाया गया है।

इस दौरान सारा पानी निकाल कर जब कुंए की तलाशी ली गई, तो कुएं के तल में बड़े-बड़े बक्से दिखे, जिसमें सोने की कई प्लेटें, चांदी के सिक्के व अन्य बेशकीमती सामान रखा हुआ था। इतना बड़ा खजाना अंग्रेजों के हाथ लग चुका था, बावजूद इसके उनका मानना था कि नाना साहेब खजाने का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने साथ ले गए हैं।
नाना साहब की मृत्यु को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। माना जाता है कि नेपाल के देवखारी गांव में रहते हुए नाना साहेब भयंकर बुख़ार से पीड़ित हो गए और इसी के परिणामस्वरूप मात्र 34 साल की उम्र में 6 अक्टूबर, 1858 को इनकी मौत हो गई। कुछ विद्वानों एवं शोधार्थियों के अनुसार क्रान्तिकारी नाना साहब के जीवन का पटाक्षेप नेपाल में न होकर गुजरात के ऐतिहासिक स्थल सिहोर में हुआ।

सिहोर के गोमतेश्वर स्थित गुफा, ब्रह्मकुण्ड की समाधि, नाना साहब के पौत्र केशवलाल के घर में सुरक्षित नागपुर, दिल्ली, पूना और नेपाल आदि से आये नाना को सम्बोधित पत्र, तथा भवानी तलवार, नाना साहब की पोथी, पूजा करने के ग्रन्थ और मूर्ति, पत्र तथा स्वाक्षरी; नाना साहब की मृत्यु तक उनकी सेवा करने वाली जड़ीबेन के घर से प्राप्त ग्रन्थ, छत्रपति पादुका और स्वयं जड़ीबेन द्वारा न्यायालय में दिये गये बयान इस तथ्य को सिद्ध करते है कि सिहोर, गुजरात के स्वामी दयानन्द योगेन्द्र नाना साहब ही थे, जिन्होंने क्रान्ति की कोई संभावना न होने पर 1865 को सिहोर में सन्न्यास ले लिया था। मूलशंकर भट्ट और मेहता जी के घरों से प्राप्त पोथियों से उपलब्ध तथ्यों के अनुसार, बीमारी के बाद नाना साहब का निधन मूलशंकर भट्ट के निवास पर भाद्रमास की अमावस्या को हुआ।

सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी कविता में रानी लक्ष्मीबाई का परिचय देते हुए लिखा है-
कानपूर के नाना की मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम पिता की वह संतान अकेली थी,

Monday 16 May 2022

*ताजमहल या तेजो महालय*

ताजमहल के मामले में माननीय न्यायालय की तल्ख टिप्पणी कुछ सवालों को खड़ा करती है ।
माननीय न्यायाधीश ये स्पष्ट करें कि क्या न्याय पाने के लिए पीएचडी करना आवश्यक है ?

माननीय न्यायाधीश की टिप्पणी है कि "ताजमहल शाहजहां ने नहीं फिर किसने बनवाया ? " माननीय न्यायाधीश ये स्पष्ट करें कि "ताज शाहजहाँ ने बनवाया" ये ज्ञान उन पर कहाँ से नाजिल हुआ ?? क्या उन्होंने इस विषय में पीएचडी की है ?

क्या माननीय न्यायाधीश महोदय को ताज के तहखानों की लकड़ी के दरवाजों की कार्बन डेटिंग के विषय में कुछ ज्ञान है वह किस समय की पाई गईं ??

क्या माननीय न्यायाधीश महोदय बता सकते हैं कि एक मकबरे में कलश, स्वस्तिक और अन्य कई हिन्दू प्रतीक चिह्न क्या कर रहे हैं ??

माननीय न्यायाधीश कृपया ये भी स्पष्ट करें कि ऐसी कौन सी प्रथा शाहजहाँ के खानदान में चलती थी जिसके तहत उसने मुमताज की लाश हवा में दफन करवाई ?? ज्ञात हो कि मुमताज बीबी की लाश को ताज के प्रथम तल में दफन नहीं किया गया है ।

माननीय न्यायाधीश जी कृपया मुमताज के मरने का साल भी स्पष्ट करें । उसे ताजमहल की कार्बन डेटिंग की उम्र से मिलान भी करें ? आखिर आम जनता भी तो जाने कि कैसे मुमताज के मरने से सैकड़ों वर्ष पहले ताज बना दिया शाहजहाँ ने । हो सकता है शाहजहाँ ने टाइम ट्रैवलिंग में पीएचडी की हो और समय ने उनके हुनर को अपने कालचक्र में छिपा लिया हो । क्योंकि प्रसिद्ध उपन्यासकार रोमिला थापर जी ने अनुसार सम्राट युधिष्ठिर टाइम ट्रैवेल कर सम्राट अशोक के कार्यों का जायजा लेने नियमित मृत्युलोक पर आते रहते थे ।

ऐसे कई अन्य प्रश्न अनुत्तरित हैं । न्याय का अर्थ ही दूध का दूध पानी का पानी कर सत्य के पक्ष में फैसला देना होता है । एक जिम्मेदार न्यायपालिका होने के नाते न्याय देना माननीय न्यायालय की जिम्मेदारी है ।

माननीय न्यायालय का कार्य तल्ख टिप्पणी करना नहीं है बल्कि न्याय देना है । तल्ख टिप्पणी देने के लिए रोडीज के जज बैठे हैं और वह अपना कार्य बखूबी कर रहे हैं ।

माननीय न्यायाधीश जी से निवेदन है कि कृपया न्याय दें !!

आगरा में ताजमहल है कि अधिकांश भारतीय ताजमहल के मूल हास्यास्पद तथ्यों को नहीं जानते हैं, मेरी राय में यह बिल्कुल सही है कि मुगल सम्राट शाहजहां (1632-1653) में सफेद संगमरमर के साथ एक गुंबद के रूप में बनाया गया है। अपनी पसंदीदा पत्नी मुमताज बेगम की याद में ताजमहल की ऊंचाई 73 मीटर है और इसे 1648 में खोला गया था। इस कहानी को प्रोफेसर पी.एन. ओक, ताजमहल: द ट्रू स्टोरी के लेखक, जो मानते हैं कि पूरी दुनिया को धोखा दिया गया है।

उनका दावा है कि ताजमहल रानी मुमताज़ महल का मकबरा नहीं है, बल्कि आगरा शहर के राजपूतों द्वारा पूजे जाने वाले भगवान शिव (तब तेजो महालय के रूप में जाना जाता है) का एक प्राचीन हिंदू मंदिर महल है। अपने शोध के दौरान, ओक ने पाया कि शिव मंदिर महल को शाहजहाँ ने जयपुर के तत्कालीन महाराजा जय सिंह से हड़प लिया था। शाहजहाँ ने फिर महल को अपनी पत्नी के स्मारक में बदल दिया। बादशाहनामा, शाहजहाँ ने अपने दरबार के इतिहास में स्वीकार किया कि आगरा में एक असाधारण सुंदर भव्य हवेली मुमताज के दफन के लिए जय सिंह से ली गई थी।

कहा जाता है कि जयपुर के पूर्व महाराजा ने अपने गुप्त संग्रह में ताज भवन के आत्मसमर्पण के लिए शाहजहाँ के दो आदेशों को बरकरार रखा था। मृत दरबारियों और रॉयल्टी के लिए कब्रगाह के रूप में कब्जा किए गए मंदिरों और मकानों का उपयोग मुस्लिम शासकों के बीच एक आम बात थी। उदाहरण के लिए, हमायूं, अकबर, एत्मुद-उद-दौला और सफदरजंग सभी ऐसी हवेली में दफन हैं। ओक की पूछताछ ताजमहल के नाम से शुरू होती है। उनका कहना है कि शाहजहाँ के समय के बाद भी यह शब्द किसी मुगल दरबार के कागजात या इतिहास में नहीं मिलता है। 'महल' शब्द का इस्तेमाल अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में किसी इमारत के लिए नहीं किया गया है। 'मुमताज़ महल से ताजमहल शब्द की सामान्य व्याख्या कम से कम दो मामलों में अतार्किक है।

उनका दावा है कि ताजमहल तेजो-महालय या शिव के महल का भ्रष्ट संस्करण है। ओक का यह भी कहना है कि मुमताज़ और शाहजहाँ की प्रेम कहानी दरबारी चाटुकारों, भूले-बिसरे इतिहासकारों और लापरवाह पुरातत्वविदों द्वारा बनाई गई एक परी कथा है। शाहजहाँ के समय का एक भी शाही इतिहास प्रेम कहानी की पुष्टि नहीं करता है। एक त्रिशूल में शिखर शाखाओं का अंत, इसकी केंद्रीय जीभ अन्य दो की तुलना में अधिक दूर तक फैली हुई है। करीब से देखने पर, केंद्रीय जीभ एक "कलश" (पानी के बर्तन) के आकार में दिखाई देती है, जिसके ऊपर दो मुड़े हुए आम के पत्ते और एक नारियल होता है। यह एक पवित्र हिंदू आदर्श है। क्या ऐसा हो सकता है कि त्रिशूल का शिखर उस देवता का प्रतीक था जिसे भगवान शिव अंदर पूजते हैं? ऊपर सूचीबद्ध प्रतीक सीधे हिंदू हैं और उनमें से कुछ कोबरा जुड़वां और गणेश "तोरण" जैसे चेतन सजावट इस्लाम में टोबू हैं। यह संभावना है कि ये विवरण, बहुत स्पष्ट नहीं होने के कारण, केवल वही हैं जो इमारत में हुए परिवर्तनों से बच गए हैं।

दीवारों पर फूलों में ओम। इसके अलावा, ओक ने कई दस्तावेजों का हवाला देते हुए सुझाव दिया कि ताजमहल शाहजहाँ के युग से पहले का है: न्यूयॉर्क के प्रोफेसर मार्विन मिलर ने ताज के नदी के किनारे के दरवाजे से नमूने लिए। कार्बन डेटिंग टेस्ट से पता चला कि दरवाजा शाहजहाँ से 300 साल पुराना था। 1638 में (मुमताज़ की मृत्यु के सात साल बाद) आगरा का दौरा करने वाले यूरोपीय यात्री जोहान अल्बर्ट मंडेल्स्लो ने अपने संस्मरणों में शहर के जीवन का वर्णन किया है, लेकिन ताजमहल के निर्माण का कोई संदर्भ नहीं दिया है। मुमताज़ की मृत्यु के एक वर्ष के भीतर आगरा के एक अंग्रेज आगंतुक पीटर मुंडी के लेखन से यह भी पता चलता है कि शाहजहाँ के समय से बहुत पहले ताज एक उल्लेखनीय इमारत थी। ओक कई डिजाइन और स्थापत्य विसंगतियों को भी इंगित करता है जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि ताजमहल एक मकबरे के बजाय एक विशिष्ट हिंदू मंदिर है।

ताजमहल के कई कमरे शाहजहाँ के समय से ही बंद हैं, और अभी भी जनता के लिए दुर्गम हैं। ओक का दावा है कि उनमें शिव और अन्य वस्तुओं की एक बिना सिर वाली मूर्ति है जो आमतौर पर हिंदू मंदिरों में पूजा की रस्मों के लिए उपयोग की जाती है। राजनीतिक प्रतिक्रिया के डर से, इंदिरा गांधी की सरकार ने ओक की किताब को किताबों की दुकानों से वापस लेने की कोशिश की, और पहले संस्करण के भारतीय प्रकाशक को गंभीर रूप से धमकी दी।
परिणाम। ओक के शोध को वास्तव में मान्य या बदनाम करने का एकमात्र तरीका ताजमहल के सीलबंद कमरों को खोलना और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों को जांच करने की अनुमति देना है।

शाहजहाँ द्वारा निर्मित नहीं; ताजमहल का सबसे भयानक रहस्य यह है कि इसे शाहजहाँ के आगरा पर शासन करने से बहुत पहले बनाया गया था। ताजमहल की सच्ची कहानी पुस्तक के अनुसार, किला मूल रूप से आगरा के शुरुआती राजपूतों द्वारा निर्मित भगवान शिव का मंदिर था। मंदिर को तब शाहजहाँ ने जीत लिया था जब उसने राजपूतों के खिलाफ लड़ाई जीती थी। यह ताजमहल का एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहस्य है जिसे अभी तक किसी भी सरकारी निकाय द्वारा कोई प्रामाणिकता नहीं दी गई है।

गुप्त कमरे; ताजमहल, किसी भी ऐतिहासिक किले की तरह, कई गुप्त मार्ग और कमरे हैं। किले या मकबरे में कई कमरे हैं, माना जाता है कि ये शाहजहाँ के समय से बंद हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, इन कमरों में इस बात के प्रमाण हैं कि यह मकबरा भगवान शिव का मंदिर था। कुछ का यह भी कहना है कि एक कमरे में भगवान शिव की बिना सिर वाली मूर्ति है। सच्चाई जो भी हो, लेकिन यह ताजमहल का एक बहुत ही रहस्य भरा रहस्य है।

भारत सरकार को पता है; ऐसा कहा जाता है कि भारत सरकार ने ताजमहल के अस्तित्व के आगे के शोध पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार ने ताजमहल की सच्चाई की किताब पर भी प्रतिबंध लगा दिया है। सरकार ने सांप्रदायिक तनाव के डर से किसी को भी सील किए गए कमरों को खोलने नहीं दिया।

जल आउटलेट; ताजमहल में पानी की एक छोटी सी धारा है जो कहीं से भी बहती है। धारा का स्रोत दिखाई नहीं देता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, उसी स्रोत से धाराएं जो शिवलिंग पर पानी डालती थीं, जब मुस्लिम मकबरा वास्तव में एक हिंदू मंदिर था। यह ताजमहल के सबसे रोमांचकारी छिपे रहस्यों में से एक है। ऐसे कई रहस्य हैं जो मकबरे की पहचान पर सवाल खड़े करते  है ।

*बुद्ध पूर्णिमा एक पवित्र दिवस*

*बुद्ध पूर्णिमा एक पवित्र दिवस*



         वैशाख के चंद्र महीने के लिए पाली शब्द वेसाख या संस्कृत वैशाख से लिया गया है , जिसे बुद्ध के जन्म का महीना माना जाता है। महायान बौद्ध परंपराओं में संस्कृत नाम (वैशाख) और इसके व्युत्पन्न रूपों से जाना जाता है।

पूर्वी एशियाई परंपरा में, बुद्ध के जन्मदिन का उत्सव आमतौर पर वेसाक के पारंपरिक समय के आसपास होता है, जबकि बुद्ध के जागरण और निधन को अलग-अलग रूप में मनाया जाता है जो कैलेंडर में अन्य समय में बोधि दिवस और निर्वाण दिवस के रूप में होते हैं । दक्षिण एशियाई परंपरा में , जहां वैशाख महीने की पूर्णिमा के दिन वेसाक मनाया जाता है, वेसाक दिवस बुद्ध के जन्म, ज्ञान और अंतिम मृत्यु का प्रतीक है ।

*इतिहास*

रानी माया बुद्ध को जन्म देते समय एक पेड़ की एक शाखा को पकड़ती है, जिसे अन्य देवताओं के रूप में शंकर द्वारा ग्रहण किया जाता है।
हालाँकि बौद्ध त्योहारों की सदियों पुरानी परंपरा है, लेकिन 1950 में श्रीलंका में आयोजित बौद्धों की विश्व फैलोशिप के पहले सम्मेलन ने कई बौद्ध देशों में वेसाक को बुद्ध के जन्मदिन के रूप में मनाने के निर्णय को औपचारिक रूप दिया। 
बौद्धों की विश्व फैलोशिप का यह सम्मेलन वेसाक दिवस पर, दुनिया भर के बौद्ध सभी परंपराओं के बौद्धों के लिए महत्व की घटनाओं का जश्न मनाते हैं: जन्म, ज्ञान और गौतम बुद्ध का निधन । जैसे ही बौद्ध धर्म भारत से फैल गया, इसे कई विदेशी संस्कृतियों में आत्मसात कर लिया गया, और परिणामस्वरूप वेसाक पूरे विश्व में कई अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। भारत में, वैशाख पूर्णिमा दिवस को बुद्ध जयंती दिवस के रूप में भी जाना जाता है और पारंपरिक रूप से बुद्ध के जन्म दिवस के रूप में स्वीकार किया गया है।

2000 में, संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने अपने मुख्यालय और कार्यालयों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वेसाक दिवस मनाने का संकल्प लिया। 

मई के महीने में आमतौर पर एक पूर्णिमा होती है, लेकिन जैसा कि पूर्णिमा के बीच 29.5 दिन होते हैं, कभी-कभी दो होते हैं। यदि मई के महीने में दो पूर्णिमाएँ होती हैं, तो कुछ देश (श्रीलंका, कंबोडिया और मलेशिया सहित) वेसाक को पहली पूर्णिमा पर मनाते हैं, जबकि अन्य (थाईलैंड, सिंगापुर) दूसरी पूर्णिमा को मनाते हैं। अन्य परंपरागत रूप से स्थानीय पूर्णिमा पर मनाया जाता है। 

वेसाक पर, भक्त बौद्ध और अनुयायी समान रूप से अपने विभिन्न मंदिरों में भोर से पहले बौद्ध ध्वज के औपचारिक और सम्मानजनक फहराने और पवित्र ट्रिपल रत्न की स्तुति में भजन गायन के लिए इकट्ठा होते हैं : बुद्ध , धर्म (उनकी शिक्षाएं), और संघ (उनके शिष्य)। भक्त फूल, मोमबत्तियां और जोस-स्टिक का साधारण प्रसाद ला सकते हैंअपने गुरु के चरणों में लेटने के लिए। ये प्रतीकात्मक प्रसाद अनुयायियों को यह याद दिलाने के लिए हैं कि जैसे सुंदर फूल थोड़े समय के बाद मुरझा जाते हैं, और मोमबत्तियां और जोस-स्टिक जल्द ही जल जाते हैं, वैसे ही जीवन भी क्षय और विनाश के अधीन है। भक्तों को किसी भी प्रकार की हत्या से बचने के लिए विशेष प्रयास करने का निर्देश दिया गया है। उन्हें दिन के लिए केवल शाकाहारी भोजन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। कुछ देशों में, विशेष रूप से श्रीलंका में, वेसाक के उत्सव के लिए दो दिन अलग रखे जाते हैं । साथ ही पक्षियों, और जानवरों को हजारों लोगों द्वारा रिहा किया जाता है, जिन्हें जीवन मुक्ति के रूप में जाना जाता है, जो उन लोगों को स्वतंत्रता देते हैं जो कैद में हैं, कैद हैं, या उनकी इच्छा के विरुद्ध अत्याचार करते हैं। (हालांकि, इस प्रथा को सिंगापुर जैसे कुछ देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया है , क्योंकि रिहा किए गए जानवर लंबे समय तक जीवित रहने में असमर्थ हैं या यदि वे ऐसा करते हैं तो स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।

कुछ धर्मनिष्ठ बौद्ध साधारण सफेद वस्त्र पहनेंगे और पूरे दिन मंदिरों में आठ नियमों का पालन करने के लिए बाध्य होते हैं।

परंपरा के अनुसार बुद्ध ने अनुयायियों को उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने का निर्देश दिया। मरने से ठीक पहले, उन्होंने अपने वफादार सेवक आनंद को रोते हुए देखा। बुद्ध ने उन्हें सलाह दी कि वे रोएं नहीं, बल्कि सार्वभौमिक नियम को समझें कि सभी मिश्रित चीजें (यहां तक कि उनके अपने शरीर सहित) को विघटित होना चाहिए। उन्होंने सभी को सलाह दी कि वे भौतिक शरीर के विघटन पर रोएं नहीं, बल्कि अपनी शिक्षाओं (धर्म) को तब से अपना शिक्षक मानें, क्योंकि केवल धम्म का सत्य शाश्वत है, और परिवर्तन के नियम के अधीन नहीं है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने का तरीका केवल फूल, धूप और रोशनी की पेशकश करना नहीं था, बल्कि उनकी शिक्षाओं का पालन करने के लिए वास्तव में और ईमानदारी से प्रयास करना था।

वेसाक की सही तारीख एशियाई चंद्र कैलेंडर पर आधारित है और मुख्य रूप से वैशाख में मनाई जाती है , जो बौद्ध और हिंदू दोनों कैलेंडर का एक महीना है , इसलिए इसका नाम वेसाक है। नेपाल में, जिसे बुद्ध का जन्म-देश माना जाता है, यह हिंदू कैलेंडर के वैशाख महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है , और इसे पारंपरिक रूप से बुद्ध पूर्णिमा कहा जाता है, पूर्णिमा का अर्थ संस्कृत में पूर्णिमा का दिन है। थेरवाद देशों में बौद्ध कैलेंडर का पालन करते हुए , यह उपोषथ दिवस पर पड़ता है, पूर्णिमा आमतौर पर 5 वें या 6 वें चंद्र महीने में होती है।

आजकल, श्रीलंका, नेपाल, भारत, बांग्लादेश और मलेशिया में, वेसाक / बुद्ध पूर्णिमा ग्रेगोरियन कैलेंडर में मई में पहली पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है।

चंद्र सौर कैलेंडर का उपयोग करने वाले देशों के लिए, वेसाक या बुद्ध के जन्मदिन की तारीख ग्रेगोरियन कैलेंडर में साल-दर-साल बदलती रहती है, लेकिन आमतौर पर अप्रैल या मई में पड़ती है; लीप वर्ष में यह जून में मनाया जा सकता है। भूटान में यह भूटानी चंद्र कैलेंडर के चौथे महीने के 15 वें दिन मनाया जाता है। थाईलैंड, लाओस, सिंगापुर और इंडोनेशिया में, चीनी चंद्र कैलेंडर में चौथे महीने के चौदहवें या पंद्रहवें दिन वेसाक मनाया जाता है। चीन, कोरिया, वियतनाम और फिलीपींस में, बुद्ध का जन्मदिन चीनी चंद्र कैलेंडर के चौथे महीने के आठवें दिन मनाया जाता है। जापान में बुद्ध का जन्मदिन एक ही तारीख को मनाया जाता है लेकिन ग्रेगोरियन कैलेंडर में, यानी 8 अप्रैल को मनाया जाता है।
           
                    *संकलन*
          साभार सोशल मीडिया से

Sunday 15 May 2022

*आज जिनका जन्मदिन है - अल्लूरी सीताराम राजू*

*आज जिनका जन्मदिन है*



अल्लूरी सीताराम राजू का जन्म 15 मई, 1897 ई. को पांडुरंगी गाँव, विशाखापट्टनम, आन्ध्र प्रदेश में हुआ था। वे भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले वीर क्रांतिकारी शहीदों में से एक थे। उन्हें औपचारिक शिक्षा बहुत कम मिल पाई थी। अपने एक संबंधी के संपर्क से वे अध्यात्म की ओर आकृष्ट हुए तथा 18 वर्ष की उम्र में ही साधु बन गए। सन 1920 में अल्लूरी सीताराम पर महात्मा गांधी के विचारों का बहुत प्रभाव पड़ा और उन्होंने आदिवासियों को मद्यपान छोड़ने तथा अपने विवाद पंचायतों में हल करने की सलाह दी। किंतु जब एक वर्ष में स्वराज्य प्राप्ति का गांधी जी का स्वप्न साकार नहीं हुआ तो सीताराम राजू ने अपने अनुयायी आदिवासियों की सहायता से अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह करके स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के प्रयत्न आंरभ कर दिए।

 वह क्षत्रिय परिवार से सम्बन्ध रखते थे। उनकी माता का नाम सूर्यनारायणाम्मा और पिता का नाम वेक्टराम राजू था। उन्हें अपने पिता के प्यार से बहुत शीघ्र ही वंचित हो जाना पड़ा। सीताराम राजू की अल्पायु में ही पिता की मृत्यु हो गयी, जिस कारण वे उचित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। बाद में वे अपने परिवार के साथ टुनी रहने आ गये। यहीं से वे दो बार तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान कर चुके थे।

पहली तीर्थयात्रा के समय वे हिमालय की ओर गये। वहाँ उनकी मुलाक़ात महान क्रांतिकारी बाबा पृथ्वीसिंह आज़ाद से हुई। इसी मुलाक़ात के दौरान इनको चटगाँव के एक क्रांतिकारी संगठन का पता चला, जो गुप्त रूप से कार्य करता था। सन 1919-1920 के दौरान साधु-सन्न्यासियों के बड़े-बड़े समूह लोगों में राष्ट्रीयता की भावना जगाने के लिए व संघर्ष के लिए पूरे देश में भ्रमण कर रहे थे। इसी अवसर का लाभ उठाते हुए सीताराम राजू ने भी मुम्बई, बड़ोदरा, बनारस, ऋषिकेश, बद्रीनाथ, असम, बंगाल और नेपाल तक की यात्रा की। इसी दौरान उन्होंने घुड़सवारी करना, तीरंदाजी, योग, ज्योतिष व प्राचीन शास्त्रों का अभ्यास व अध्ययन भी किया। वे काली माँ के उपासक थे।
अपनी तीर्थयात्रा से वापस आने के बाद सीताराम राजू कृष्णदेवीपेट में आश्रम बनाकर ध्यान व साधना आदि में लग गए। उन्होंने संन्यासी जीवन जीने का निश्चय कर लिया था। दूसरी बार उनकी तीर्थयात्रा का प्रयाण नासिक की ओर था, जो उन्होंने पैदल ही पूरी की थी। यह वह समय था, जब पूरे भारत में 'असहयोग आन्दोलन' चल रहा था। आन्ध्र प्रदेश में भी यह आन्दोलन अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया था। इसी आन्दोलन को गति देने के लिए सीताराम राजू ने पंचायतों की स्थापना की और स्थानीय विवादों को आपस में सुलझाने की शुरुआत की। सीताराम राजू ने लोगों के मन से अंग्रेज़ शासन के डर को निकाल फेंका और उन्हें 'असहयोग आन्दोलन' में भाग लेने को प्रेरित किया।
कुछ समय बाद सीताराम राजू ने गांधी जी के विचारों को त्याग दिया और सैन्य सगठन की स्थापना की। उन्होंने सम्पूर्ण रम्पा क्षेत्र को क्रांतिकारी आन्दोलन का केंद्र बना लिया। मालाबार का पर्वतीय क्षेत्र छापामार युद्ध के लिए अनुकूल था। इसके अलावा क्षेत्रीय लोगों का पूरा सहयोग भी उन्हें मिल रहा था। आन्दोलन के लिए प्राण तक न्यौछावर करने वाले लोग उनके साथ थे। इसीलिए आन्दोलन को गति देने के लिए गुदेम में गाम मल्लू डोरे और गाम गौतम डोरे बंधुओं को लेफ्टिनेंट बनाया गया। आन्दोलन को और तेज़ करने के लिए उन्हें आधुनिक शस्त्र की आवश्यकता थी। ब्रिटिश सैनिकों के सामने धनुष-बाण लेकर अधिक देर तक टिके रहना आसान नहीं था। इस बात को सीताराम राजू भली-भाँति समझते थे। यही कारण था कि उन्होंने डाका डालना शुरू किया। इससे मिलने वाले धन से शस्त्रों को ख़रीद कर उन्होंने पुलिस स्टेशनों पर हमला करना शुरू किया। 22 अगस्त, 1922 को उन्होंने पहला हमला चिंतापल्ली में किया। अपने 300 सैनिकों के साथ शस्त्रों को लूटा। उसके बाद कृष्णदेवीपेट के पुलिस स्टेशन पर हमला कर किया और विरयया डोरा को मुक्त करवाया।

अल्लूरी सीताराम राजू की बढ़ती गतिविधियों से अंग्रेज़ सरकार सतर्क हो गयी। ब्रिटिश सरकार जान चुकी थी की अल्लूरी राजू कोई सामान्य डाकू नहीं है। वे संगठित सैन्य शक्ति के बल पर अंग्रेज़ों को अपने प्रदेश से बाहर निकाल फेंकना चाहते है। सीताराम राजू को पकड़वाने के लिए सरकार ने स्कार्ट और आर्थर नाम के दो अधिकारियों को इस काम पर लगा दिया। सीताराम राजू ने ओजेरी गाँव के पास अपने 80 अनुयायियों के साथ मिलकर दोनों अंग्रेज़ अधिकारियों को मार गिराया। इस मुठभेड़ में ब्रिटिशों के अनेक आधुनिक शस्त्र भी उन्हें मिल गए। इस विजय से उत्साहित सीताराम राजू ने अंग्रेज़ों को आन्ध्र प्रदेश छोड़ने की धमकी वाले इश्तहार पूरे क्षेत्र में लगवाये। इससे अंग्रेज़ सरकार और भी अधिक सजग हो गई। उसने सीताराम राजू को पकड़वाने वाले के लिए दस हज़ार रुपये इनाम की घोषणा करवा दी। उनकी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए लाखों रुपया खर्च किया गया। मार्शल लॉ लागू न होते हुए भी उसी तरह सैनिक बन्दोबस्त किया गया। फिर भी सीताराम राजू अपने बलबूते पर सरकार की इस कार्रवाई का प्रत्युत्तर देते रहे। ब्रिटिश सरकार लोगों में फूट डालने का काम सरकार करती थी, लेकिन अल्लूरी राजू की सेना में लोगों के भर्ती होने का सिलसिला जारी रहा।

ब्रिटिश सरकार पर सीताराम राजू के हमले लगातार जारी थे। उन्होंने छोड़ावरन, रामावरन् आदि ठिकानों पर हमले किए। उनके जासूसों का गिरोह सक्षम था, जिससे सरकारी योजना का पता पहले ही लग जाता था। उनकी चतुराई का पता इस बात से लग जाता है की जब पृथ्वीसिंह आज़ाद राजमहेन्द्री जेल में क़ैद थे, तब सीताराम राजू ने उन्हें आज़ाद कराने का प्रण किया। उनकी ताकत व संकल्प से अंग्रेज़ सरकार परिचित थी। इसलिए उसने आस-पास के जेलों से पुलिस बल मंगवाकर राजमहेंद्री जेल की सुरक्षा के लिए तैनात किया। इधर सीताराम राजू ने अपने सैनिकों को अलग-अलग जेलों पर एक साथ हमला करने की आज्ञा दी। इससे फायदा यह हुआ की उनके भंडार में शस्त्रों की और वृद्धि हो गयी। उनके इन बढ़ते हुए कदमों को रोकने के लिए सरकार ने 'असम रायफल्स' नाम से एक सेना का संगठन किया। जनवरी से लेकर अप्रैल तक यह सेना बीहड़ों और जंगलों में सीताराम राजू को खोजती रही। मई 1924 में अंग्रेज़ सरकार उन तक पहुँच गई। 'किरब्बू' नामक स्थान पर दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ।

अल्लूरी राजू विद्रोही संगठन के नेता थे और 'असम रायफल्स' का नेतृत्त्व उपेन्द्र पटनायक कर रहे थे। दोनों ओर की सेना के अनेक सैनिक मारे जा चुके थे। अगले दिन 7 मई को पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार सीताराम राजू को पकड़ लिया गया। उस समय सीताराम राजू के सैनिकों की संख्या कम थी फिर भी 'गोरती' नामक एक सैन्य अधिकारी ने सीताराम राजू को पेड़ से बांधकर उन पर गोलियाँ बरसाईं। अल्लूरी सीताराम राजू के बलिदान के बाद भी अंग्रेज़ सरकार को विद्रोही अभियानों से मुक्ति नहीं मिली। इस प्रकार लगभग दो वर्षों तक ब्रिटिश सत्ता की नींद हराम करने वाला यह वीर सिपाही शहीद हो गया। रजत पट पर देश और दुनिया में धूम मचा रही फिल्म 'RRR' कहीं न कहीं उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रेरित लगती है।