Sunday, 11 October 2020

सारागढ़ी के रणबाँकुरे

सारागढ़ी के रणबाँकुरे जब 21 भारतीय जवानो ने 10 हजार अफगानों को रोक लिया / 12 सितम्बर, 1897

यह विश्व के सैनिक इतिहास की एक अनुपम गाथा है. भारतीय जवानों के शौर्य और पराक्रम का अनुपम उदाहरण है. मात्र 21 सिख सैनिको ने दस हजार अफगानों से जमकर मोर्चा लिया और अपने से कई गुना अधिक दुश्मनों को एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने दिया.

यह घटना 12 सितम्बर 1897 की है. अंग्रेजो और अफगानों के बीच 1839 से 1919 के बीच 80 सालों मे तीन बड़ी लड़ाईयां हुई. 1897-98 के युद्ध में सिख रेजिमेंट अग्रिम मोर्चे पर थी. इस रेजिमेंट की चौथी बटालियन के 21 जवान सारागढ़ी की सैनिक चौकी पर तैनात थे. इनका नायक था हवलदार ईशर सिंह. इस टुकड़ी को हर हालत में चौकी की रक्षा करने का आदेश मिला था.

12 सितम्बर 1897 के दिन भोर में दस हजार अफगानों ने इस चौकी पर हमला बोल दिया. चौथी बटालियन के जवानो ने भी चौकी के चारो कोनों पर मोर्चा जमा लिया. टुकड़ी के साथ रसोईया भी था उसने भी बंदूक संभाली और मोर्चे पर डट गया. एक ओर दस हजार अफगान लड़ाके और दूसरी ओर 21सिख सैनिक. एक खालसे का मुकाबले में पांचसौ अफगान थे.

सारागढ़ी में बंदुको से गोलिओं की दना-दन बौछार होने लगी. 21 भारतीय वीर हर गोली का जवाब दे रहे थे. सूरज आसमान में चढ़ने लगा. चौकी के जवान एक-एक कर वीरगति को प्राप्त होने लगे. सूरज ढलने के साथ सिख टुकड़ी के सारे सैनिक शहीद हो गए. उसी समय अतिरिक्त भारतीय फौज वहां पहुँच गयी उनकी तोपों की मार से अफगान सेना गाजर-मूली की तरह साफ होने लगी. दुश्मन भागने लगे और भागते ही गये.

सरगढ़ी अविजित ही रहा. इस प्रेरणादायी लड़ाई की याद में भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट हर साल 12 सितम्बर को ‘ सारागढ़ी ‘ के रूप में मानती है. उन बहादुरों की याद में एक कविता ‘ खालसा बहादुर’  लिखी गई. वीरगति को प्राप्त हुए सभी जवान फिरोजपुर और अमृतसर जिलों के थे. इसलिये इन वीरो कीं याद में दो गुरूद्वारे इन दोनों जिलो में बनायें गये. एक सरगढ़ी गुरुद्वारा अमृतसर स्वर्ण मंदिर के पास हैऔर दूसरा फिरोजपुर सैनिक छावनी में हैं.

Thursday, 1 October 2020

भगवान विष्णु और केवट की कहानी

क्षीरसागर में भगवान विष्णु शेष शैया पर विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही हैं। विष्णु जी के एक पैर का अंगूठा शैया के बाहर आ गया और लहरें उससे खिलवाड़ करने लगीं। 
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क्षीरसागर के एक कछुवे ने इस दृश्य को देखा और मन में यह विचार कर कि मैं यदि भगवान विष्णु के अंगूठे को अपनी जिव्ह्या से स्पर्श कर लूँ तो मेरा मोक्ष हो जायेगा उनकी ओर बढ़ा। 
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उसे भगवान विष्णु की ओर आते हुये शेषनाग जी ने देख लिया और कछुवे को भगाने के लिये जोर से फुँफकारा। फुँफकार सुन कर कछुवा भाग कर छुप गया। 
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कुछ समय पश्चात् जब शेष जी का ध्यान हट गया तो उसने पुनः प्रयास किया। इस बार लक्ष्मी देवी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे भगा दिया। 
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इस प्रकार उस कछुवे ने अनेकों प्रयास किये पर शेष जी और लक्ष्मी माता के कारण उसे कभी सफलता नहीं मिली। यहाँ तक कि सृष्टि की रचना हो गई और सत्युग बीत जाने के बाद त्रेता युग आ गया। 
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इस मध्य उस कछुवे ने अनेक बार अनेक योनियों में जन्म लिया और प्रत्येक जन्म में भगवान की प्राप्ति का प्रयत्न करता रहा। अपने तपोबल से उसने दिव्य दृष्टि को प्राप्त कर लिया था। 
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कछुवे को पता था कि त्रेता युग में वही क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु राम का, वही शेष जी लक्ष्मण का और वही लक्ष्मी देवी सीता के रूप में अवतरित होंगे तथा वनवास के समय उन्हें गंगा पार उतरने की आवश्यकता पड़ेगी। इसीलिये वह भी केंवट बन कर वहाँ आ गया था।
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एक युग से भी अधिक काल तक तपस्या करने के कारण उसने प्रभु के सारे मर्म जान लिये थे, इसीलिये उसने राम से कहा था कि मैं आपका मर्म जानता हूँ। 
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संत श्री तुलसी दास जी भी इस तथ्य को जानते थे, इसलिये अपनी चौपाई में केंवट के मुख से कहलवाया है कि 
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“कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना”।
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केवल इतना ही नहीं, इस बार केंवट इस अवसर को किसी भी प्रकार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। उसे याद था कि शेषनाग क्रोध कर के फुँफकारते थे और मैं डर जाता था। 
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अबकी बार वे लक्ष्मण के रूप में मुझ पर अपना बाण भी चला सकते हैं, पर इस बार उसने अपने भय को त्याग दिया था, लक्ष्मण के तीर से मर जाना उसे स्वीकार था, पर इस अवसर को खो देना नहीं। 
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इसीलिये विद्वान संत श्री तुलसी दास जी ने लिखा है -
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( हे नाथ ! मैं चरणकमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा; मैं आपसे उतराई भी नहीं चाहता। हे राम ! मुझे आपकी दुहाई और दशरथ जी की सौगंध है, मैं आपसे बिल्कुल सच कह रहा हूँ। भले ही लक्ष्मण जी मुझे तीर मार दें, पर जब तक मैं आपके पैरों को पखार नहीं लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ ! हे कृपालु ! मैं पार नहीं उतारूँगा। )
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तुलसीदास जी आगे और लिखते हैं -
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केंवट के प्रेम से लपेटे हुये अटपटे वचन को सुन कर करुणा के धाम श्री रामचन्द्र जी जानकी जी और लक्ष्मण जी की ओर देख कर हँसे। जैसे वे उनसे पूछ रहे हैं कहो अब क्या करूँ, उस समय तो केवल अँगूठे को स्पर्श करना चाहता था और तुम लोग इसे भगा देते थे, पर अब तो यह दोनों पैर माँग रहा है।
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केंवट बहुत चतुर था। उसने अपने साथ ही साथ अपने परिवार और पितरों को भी मोक्ष प्रदान करवा दिया। तुलसी दास जी लिखते हैं -.

चरणों को धोकर पूरे परिवार सहित उस चरणामृत का पान करके उसी जल से पितरों का तर्पण करके अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्र को गंगा के पार ले गया।
उस समय का प्रसंग है ... जब केंवट भगवान् के चरण धो रहे हैं ।
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बड़ा प्यारा दृश्य है, भगवान् का एक पैर धोकर उसे निकलकर कठौती से बाहर रख देते हैं, और जब दूसरा धोने लगते हैं, 
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तो पहला वाला पैर गीला होने से जमीन पर रखने से धूल भरा हो जाता है,
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केंवट दूसरा पैर बाहर रखते हैं, फिर पहले वाले को धोते हैं, एक-एक पैर को सात-सात बार धोते हैं ।
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फिर ये सब देखकर कहते हैैं, प्रभु एक पैर कठौती में रखिये, दूसरा मेरे हाथ पर रखिये, ताकि मैला ना हो ।
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जब भगवान् ऐसा ही करते हैं । तो जरा सोचिये ... क्या स्थिति होगी , यदि एक पैर कठौती में है दूसरा केंवट के हाथों में, 
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भगवान् दोनों पैरों से खड़े नहीं हो पाते बोले - केंवट मैं गिर जाऊँगा ?
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केवट बोला - चिंता क्यों करते हो भगवन् !.
दोनों हाथों को मेरे सिर पर रख कर खड़े हो जाईये, फिर नहीं गिरेंगे ,
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जैसे कोई छोटा बच्चा है जब उसकी माँ उसे स्नान कराती है तो बच्चा माँ के सिर पर हाथ रखकर खड़ा हो जाता है, भगवान् भी आज वैसे ही खड़े है। 
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भगवान् केवट से बोले - भईया केंवट ! मेरे अंदर का अभिमान आज टूट गया...
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केंवट बोला - प्रभु ! क्या कह रहे हैं ?.
भगवान् बोले - सच कह रहा हूँ केंवट, अभी तक मेरे अंदर अभिमान था, कि .... मै भक्तों को गिरने से बचाता हूँ पर.. 
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आज पता चला कि, भक्त भी भगवान् को गिरने से बचाता है.

जय श्री हरि🚩🙏